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बुधवार, 12 मार्च 2025

तेजस्वी यादव दिन के उजाले में सपने देख रहे!

हरेश कुमार




बिहार का दुर्भाग्य रहा कि जनता दल यूनाइटेड के सर्वेसर्वा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री बनने के चक्कर में भारतीय जनता पार्टी के साथ अपना 17 साल पुराना संबंध एक झटके में खत्म करके उस लालू प्रसाद यादव के साथ मिला लिया, जिसके जंगलराज, कुशासन और अपहरण उद्योग के खिलाफ तंज आकर कभी बिहार की जनता ने उन्हें सिरमाथे पर बिठाया था।


राजनीति में महत्वाकांक्षा कोई गलत बात नहीं है। होनी भी चाहिए। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत से सरकार बनने से पहले हम सभी ने देखा कि किस तरह से प्रधानमंत्री बन रहे थे। इसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर से लेकर देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल को हम सभी ने देखा। देवेगौड़ा जब प्रधानमंत्री बने तो उस समय जनता दल के मात्र 16 सांसद थे। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि 16 सांसदों वाली पार्टी के नेता इस देश में प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं। सबकुछ ठीकठाक चल रहा था तभी देवेगौड़ा के निर्देश पर तत्कालीन केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई के निदेशक जोगिंदर सिंह ने चारा घोटाला में लालूप्रसाद यादव पर शिकंजा कसना शुरू किया। फिर क्या था, लालू प्रसाद यादव ने देवेगौड़ी की सरकार को गिरा दिया। इसके बाद इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने। उन्हें पटना के सब्जी बाग के पते पर राज्यसभा में भेजा गया था, वे कभी पटना नहीं आए थे। खैर, ये राजनीति है और यहां कुछ भी असंभव नहीं। लालू प्रसाद यादव खुद गृह मंत्री बनना चाहते थे, लेकिन इनकी सोनिया गांधी ने इन्हें रेल मंत्री बनाकर सौदेबाजी को निपटा दिया। गृह मंत्री बनने के पीछे लालू प्रसाद यादव की महत्वाकांक्षा अपने खिलाफ चारा घोटाला से लेकर विभिन्न घोटालों में चल रहे केस को कमजोर करना और सबूतों को खत्म करना था। आप सबको याद होगा कभी रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भरी सभा में गर्व के साथ कहा था- मैंने बोफोर्स घोटाला से संबंधित कागजात को नष्ट कर दिया था, जिसमें राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप था। कोई दूसरा देश होता, तो मुलायम सिंह यादव पर केस दर्ज हो जाता और उन्हें सजा होती। खैर, ये भारत है!



1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार को हम सभी ने पूर्ण बहुमत में बदलते देखा। नरसिम्हा राव पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने पूरे पांच साल तक ठसक से सरकार चलाया और गांधी-नेहरू परिवार को हर फैसलों से दूर रखा। इसका परिणाम यह हुआ कि मरने के बाद कांग्रेस के गांधी-नेहरू परिवार द्वारा उनकी दुर्गति कर दी गई। कांग्रेस मुख्यालय का गेट उनके शव के अंतिम दर्शन के लिए नहीं खोला गया और न ही उनके अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली में जमीन दी गई। थक-हारकर उनके पुत्र ने हैदराबाद ले जाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया। फिर अटल बिहारी वाजपेयी का दौर आया। उन्होंने भी 13 दिन, 13 महीने और पांच साल सरकार चलाई। हालांकि, वे पर्दे के पीछे चल रहे कांग्रेस और मीडिया के गठजोड़ को समझ नहीं सके और चुनाव में उनकी हार हुई, जिसके बाद 10 साल तक सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को आगे कर सरकार चलाई। इस दौरान सोनिया गांधी सुपर पीएम रहीं। दस साल के कांग्रेस शासनकाल के दौरान इतने घोटाले हुए कि लोग कांग्रेस से तंग आ चुके थे। हर कोई कांग्रेस सरकार को पलटना चाहता था। विपक्षी भारतीय जनता पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के बड़े दावेदार थे, लेकिन उनका दुर्भाग्य कि कुछ लोगों के बहकावे में आकर वे पाकिस्तान जाकर उस जिन्ना की कब्र पर चादर चढ़ा आए, जो भारत के बंटवारे और लाखों लोगों की हत्या के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार था। आडवाणी इतने तक ही नहीं रहे, उन्होंने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बता दिया। इस एक टिप्पणी ने उनकी सभी राजनीतिक आकांक्षाओं को सदा-सदा के लिए जमींदोज कर दिया था। आडवाणी इतना करने के बाद भी भाजपा को 192 सीट से आगे न ले जा सके थे।


2002 में गुजरात के गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के S6 बोगी में योजनाबद्ध तरीके से आग लगाई गई थी, जिसमें 59 कारसेवकों की जलकर मौत हो गई थी। इसके बाद गुजरात में बड़े पैमाने पर दंगे हुए। तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे बड़े ही शानदार तरीके से हैंडल किया। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने सारी मशीनरी को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के पीछे लगा दिया। अमित शाह को तड़ीपार घोषित कर दिया गया। मोदी के पीछे सीबीआई से लेकर हर एजेंसी को लगाने के बावजूद कुछ हासिल नहीं हो सका। लोगों को लगा कि कांग्रेसने जानबूझकर मोदी को परेशान किया है।मोदी के लिए देशभर में माहौल बनने लगा था। तभी लोकसभा चुनाव की घोषणा हो जाती है और नरेंद्र मोदी को भाजपा के पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाता है। इतना होना था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उनके समर्थक गोधरा कांड की याद दिलाते हैं और मुस्लिमों का वोट लेने के चक्कर में उन्होंने भाजपा के साथ अपना 17 साल पुराना गठबंधन एक झटके में तोड़ दिया। इसके पीछे नीतीश कुमार की एकमात्र सोच यह थी कि जदयू के 22 सांसद हैं, चुनाव बाद इतने भी रहते हैं तो केंद्र में रेल मंत्रालय से लेकर गृह मंत्रालय तक झटका जा सकता है। किस्मत ने साथ दे दिया तो प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं, क्योंकि उनके सामने देवेगौड़ा का उदाहरण सामने था, लेकिन होनी यानी भाग्य को कुछ और मंजूर था। लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल गया और जिस जनता दल यूनाइटेद के चुनाव से पहले 22 सांसद थे, वे 2 पर सिमट कर रह गए।


नीतीश कुमार को बड़ा झटका लगा था। वामपंथियों ने इसे मौका के तौर पर देखा और बिहार में लालू प्रसाद के साथ मिलकर नीतीश कुमार का गठबंधन करवा दिया। नीतीश कुमार उस समय लालू प्रसाद यादव के साथ होने को मजबूर थे, क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं रह गया था। चुनाव में उनकी पार्टी की भारी हार हुई थी।


बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के महागठबंधन, जिसमें कांग्रेस भी एक हिस्सा के तौर पर थी, को भारी बहुमत मिला और बिहार में सरकार बन गई। वामपंथियों को लगा कि बिहार का यह केस उत्तर प्रदेश में भी दोहराया जा सकता है और उन्होंने उत्तर प्रदेश में मायावती औऱ मुलायम सिंह यादव के बीच समझौता करा दिया, जो तब असंभव लग रहा था। राजनीति जो न कराए, कम है। हालांकि, यूपी में इन सबकी दाल न गली। हम आते हैं बिहार की राजनीति पर। बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की सरकार तो बन गई थी, लेकिन नीतीश कुमार की छवि को भारी धक्का लगा था। बिहार में फिर से अपराधियों का बोलबाला होने लगा था। उधर लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी मन ही मन अपने छोटे पुत्र तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने का सपना देखने लगे थे। इस कारण नीतीश कुमार असहज होने लगे थे। शहाबुद्दीन से लेकर तमाम अपराधी एक बार फिर से सिर उठाने लगे थे। नीतीश कुमार की इस बेचैनी को भाजपा के नेताओं ने भांपा और पटना सिटी में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में नीतीश कुमार को फिर से एनडीए के पाले में लाने का काम हुआ। इससे पहले सिवान में शहाबुद्दीन के अपराधियों ने दैनिक हिन्दुस्तान के पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी थी। नीतीश कुमार ने तुरंत लालू प्रसाद यादव की पार्टी से अपना नाता तोड़ा और भाजपा के साथ सरकार बना लिया। लेकिन यह संबंध भी ज्यादा समय तक नहीं चला और नीतीश कुमार दोबारा से लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ चले गए। इस बार नीतीश कुमार को भारी बेईज्जती का सामना करना पड़ा और वो फिर अपने पुराने घर में वापस हो गए।
ये नीतीश कुमार थे, जिनके समर्थन के कारण लालू प्रसाद यादव की जेबी पार्टी को जीवनदान मिला था और आज की तारीख में उसके पास 80 विधायक हैं, जिसके दम पर तेजस्वी यादव को लगता है कि हम सीएम फेस हैं। तेजस्वी यादव दिन में सपने देख रहे हैं। नीतीश कुमार और भाजपा के कार्यकर्ता व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक लालू प्रसाद यादव के राज के गुंडागर्दी को नहीं भूले हैं। बिहार में किस तरह से लोग शाम होते ही घरों में दुबक जाते थे। सबकुछ होने के बाद भी बिहार लेबर सप्लायर बनकर रह गया है।
नीतीश कुमार की सरकार में बिहार में काफी काम हुआ है। बिहार की जनता कभी नहीं चाहेगी कि एक बार फिर से जंगलराज का वो पुराना दौर वापस आए, क्योंकि लालू प्रसाद यादव और उनके पुत्र तेजस्वी यादव पर कोई भरोसा नहीं। लालू प्रसाद यादव ने पटना के गांधी मैदान की रैली में नीतीश कुमार के साथ कसम खाई थी कि दोबारा से पुरानी गलतियों को नहीं दोहराएंगे और कुछ दिनों बाद ही वो अपना कसम भूल गए। लालू प्रसाद यादव की बिटिया पटना लोकसभा से सांसद बन गई है, वो बस भाग्य की बात है और कुछ नहीं। भाजपा के ही कुछ लोगों की दगाबाजी के कारण ऐसा संभव हुआ है। इस कारण लालू प्रसाद एंड फैमिली पार्टी दोबारा से सपने देखना शुरू कर दिया है, जो अब किसी भी सूरत में संभव नहीं है।
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