हरेश कुमार
खबर- लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं करेंगे नेता
असर- लोगों को उल्लू बनाने का नया तरीका है।
-जब तक नेता अपने आचऱण, व्यवहार और कार्यशैली में सुधार नहीं लाएंगे, तब तक लाल बत्ती या पीली या नीली बत्ती उतारने या लगाने से कुछ नहीं होने वाला।
-जाके पूछिए क्षेत्र में नेताओं के बारे में लोग क्या राय रखते हैं। आज सरकारी संस्थानों की बदतर स्थिति और नेताओं की जय-जय के पीछे के कारणों को जानने के लिए ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं है।
-जब तक सुरक्षा का तामझाम नहीं हटेगा, तब तक कोई परिवर्तन नहीं दिखने वाला।
- जिस दिन कोई मंत्री, विधायक, पार्षद य अन्य नेता साधारण बस या मेट्रो में बगैर किसी तामझाम के यात्रा करेगा उस दिन समझेंगे कि हां बदलाव हो रहा है।
- हाल ही में शिवसेना के एक सांसद रवींद्र गायकवाड़ ने एअर इंडिया के एक बुजुर्ग कर्मचारी को सैंडिल से पीटा और माफी तक नहीं मांगी।
यह बताने के लिए काफी है कि स्थिति में दूर-दूर तक सुधार नहीं होने वाला है।
- जब तक नेताओं के लिए योग्यता का निर्धारण नहीं होगा, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। यह उस देश की बात है जहां एक चपरासी के लिए सत्तरह प्रकार के टेस्ट होते हैं और देश का कानून बनाने वाले नेताओं के लिए कोई योग्यता नहीं।
चाहे उसने हत्या, बलात्कार या अन्य जघन्य अपराध किए हों, अगर उसके पास बाहुबल है, पैसा है, जाति-धर्म के लोगों के बीच अच्छी पकड़ है तो हर पार्टी उसके लिए लाल कालीन बिछाने को तैयार है।
यहां हाथी के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं।
- इस देश की एक तिहाई से अधिक की जनता आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर है। लेकिन अन्न सड़ाकर या तो समुंदर में फेंक दिया जाता है या फिर शराब उत्पादकों को बेच दिया जाता है, ताकि सड़ाकर इसे वो बियर बना सकें।
गरीब मरने के लिए ही पैदा होता है, इसलिए उस पर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं।
आजादी के 70 सालों के बाद सरकारी संस्थानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, जबकि वहीं प्राइवेट संस्थान (नेताओं की काली कमाई के निवेश का बेहतर जरिया है ये) कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-चौराहे पर पैदा हो रहे हैं। जिसकी कोई गुणवत्ता नहीं, लेकिन आम आदमी के पास कोई विकल्प नहीं।
अपवादों को छोड़ दें तो आप किसी भी सरकारी स्कूल, अस्पताल या कॉलेज चले जाएं वहां की अव्यवस्था और कर्मचारियों के बेहूदे रवैये के कारण आप दोबारा जाने की नहीं सोचेंगे। वहीं, प्राइवेट संस्थान इसका जमकर लाभ उठाते हैं और भरपूर दोहन करते हैं। उन्हें न तो प्रशासन का डर होता है और न ही किसी नियम-कायदे-कानून का।
कहावत है - जब सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का और वही हो रहा है इस देश की जनता के साथ। जो अपने ही नेताओं के कारण ऐसी स्थिति को सहने करने के लिए विवश है।
खबर- लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं करेंगे नेता
असर- लोगों को उल्लू बनाने का नया तरीका है।
-जब तक नेता अपने आचऱण, व्यवहार और कार्यशैली में सुधार नहीं लाएंगे, तब तक लाल बत्ती या पीली या नीली बत्ती उतारने या लगाने से कुछ नहीं होने वाला।
-जाके पूछिए क्षेत्र में नेताओं के बारे में लोग क्या राय रखते हैं। आज सरकारी संस्थानों की बदतर स्थिति और नेताओं की जय-जय के पीछे के कारणों को जानने के लिए ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं है।
-जब तक सुरक्षा का तामझाम नहीं हटेगा, तब तक कोई परिवर्तन नहीं दिखने वाला।
- जिस दिन कोई मंत्री, विधायक, पार्षद य अन्य नेता साधारण बस या मेट्रो में बगैर किसी तामझाम के यात्रा करेगा उस दिन समझेंगे कि हां बदलाव हो रहा है।
- हाल ही में शिवसेना के एक सांसद रवींद्र गायकवाड़ ने एअर इंडिया के एक बुजुर्ग कर्मचारी को सैंडिल से पीटा और माफी तक नहीं मांगी।
यह बताने के लिए काफी है कि स्थिति में दूर-दूर तक सुधार नहीं होने वाला है।
- जब तक नेताओं के लिए योग्यता का निर्धारण नहीं होगा, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। यह उस देश की बात है जहां एक चपरासी के लिए सत्तरह प्रकार के टेस्ट होते हैं और देश का कानून बनाने वाले नेताओं के लिए कोई योग्यता नहीं।
चाहे उसने हत्या, बलात्कार या अन्य जघन्य अपराध किए हों, अगर उसके पास बाहुबल है, पैसा है, जाति-धर्म के लोगों के बीच अच्छी पकड़ है तो हर पार्टी उसके लिए लाल कालीन बिछाने को तैयार है।
यहां हाथी के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं।
- इस देश की एक तिहाई से अधिक की जनता आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर है। लेकिन अन्न सड़ाकर या तो समुंदर में फेंक दिया जाता है या फिर शराब उत्पादकों को बेच दिया जाता है, ताकि सड़ाकर इसे वो बियर बना सकें।
गरीब मरने के लिए ही पैदा होता है, इसलिए उस पर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं।
आजादी के 70 सालों के बाद सरकारी संस्थानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, जबकि वहीं प्राइवेट संस्थान (नेताओं की काली कमाई के निवेश का बेहतर जरिया है ये) कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-चौराहे पर पैदा हो रहे हैं। जिसकी कोई गुणवत्ता नहीं, लेकिन आम आदमी के पास कोई विकल्प नहीं।
अपवादों को छोड़ दें तो आप किसी भी सरकारी स्कूल, अस्पताल या कॉलेज चले जाएं वहां की अव्यवस्था और कर्मचारियों के बेहूदे रवैये के कारण आप दोबारा जाने की नहीं सोचेंगे। वहीं, प्राइवेट संस्थान इसका जमकर लाभ उठाते हैं और भरपूर दोहन करते हैं। उन्हें न तो प्रशासन का डर होता है और न ही किसी नियम-कायदे-कानून का।
कहावत है - जब सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का और वही हो रहा है इस देश की जनता के साथ। जो अपने ही नेताओं के कारण ऐसी स्थिति को सहने करने के लिए विवश है।
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