पेज

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

इस्लाम और जिहाद के एक घृणित औऱ असंवेदनशील कुकृत्य पर दिलीप कुमार कौल की कविता

दिलीप कुमार कौल की ये कविता विचलित कर देती है । इस्लाम और जिहाद के एक घृणित असंवेदनशील कुकृत्य अग्निशेखर की वाॅल से साभार ।
संस्मरण..
0
यह कितने अफसोस की बात है कि जिहादी आतंकवादियों और साम्प्रदायिक अलगाववादियों के हाथों मातृभूमि कश्मीरी से लाखोंं निर्दोष कश्मीरी पंडितों के 'जीनोसाइड ' और उनकी जलावतनी पर हिन्दी साहित्य में एक चुप्पी ओढी गयी। ऐसे में लेकिन खामोश नहीं रहे घाटी से बाहर आकर शरणार्थी कैंपों में अपमानित और जिल्लत की जिन्दगी जीते कश्मीरी, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के रचनाकार ।
बलात्कारों की कड़ी में बांडीपुर (कश्मीर ) की गिरिजा रैना को कुपवाड़ा में 4 जून 1990 को अगवा करके सामूहिक बलात्कार के बाद उसे आरा चौपाल पर जीते जी दो फाड़ चीरा गया था,जो रोमहर्षक घटना थी।इस घटना पर जलावतनी में उक्त सब भाषाओं के कवियों ने कविताएँ लिखीं।चित्रकारों ने चित्र बनाकर विरोध किया ।
बहन गिरिजा रैना मेरे आत्मीय मित्र की भाभी थीं ।
यहाँ मैं शहीद गिरिजा रैना की याद में दिलीपकुमार कौल की यह हिला देने वाली कविता आप संवेदनशील मित्रों के लिए पेश कर रहा हूँ । यह कविता कवि ने वहीं कश्मीर में रहते आतंक के साए में जून 1990 में ही लिखी थी...
-अग्निशेखर 
------------------------------------
शहीद गिरिजा रैना का पोस्टमार्टम
-दिलीप कुमार कौल
सर के बीचोंबीच
चलाई गई है आरी नीचे की ओर
आधा माथा कटता चला गया है
आधी नाक
गर्दन भी आधी क्षत विक्षत सी 
बिखर सी गई हैं गर्दन की सात हड्डियां
फिर वक्ष के बीचों बीच काटती चली गई है नाभि तक आरी
दो भगोष्ठों को अलग अलग करती हुई
दो कटे हुए हिस्से एक जिस्म के 
जैसे एक हिस्सा दूसरे को आईना दिखा रहा हो
.................
दोनों हिस्सों पर 
एक एक कुम्हालाया सा वक्ष है
जैसे मुड़ी तुड़ी पॉलिथीन की थैली
नहीं जैसे एक नवजात पिल्ले का गला घोंटकर
डाल दिया गया हो 
एक फटे पुराने लिहाफ़ से निकली 
मुड़ी तुड़ी रुई के ढेर पर ...
................
एक हिस्से की एक आंख में भय है
और दूसरे हिस्से की एक आंख में पीड़ा....”
....................
देखो यह शव परीक्षण की भाषा नहीं है
यहां उपमाओं के लिए 
कोई स्थान नहीं है...
पर क्या करें जब बीच से दो टुकड़ों में बंटा शव हो
तो इच्छा जागृत होती ही है समझने की कि
कैसा लगता होगा वह अस्तित्व
दो टुकड़ों में बंटने से पहले
कल्पनाएं खुद ही उमड़ पड़ती हैं
और भाषा बाह्य परीक्षण और आंतरिक परीक्षण की शब्दावलियों को लांघकर 
उपमाओं के कवित्व को छूने लगती है
....................
हां परन्तु यह कर्तव्य नहीं है
न ही वांछित है
क्षमा करें 
तो फिर व्यावसायिक प्रतिबद्धता की ओर लौटता हूं
आता हूं बाह्य परीक्षण की ओर
परन्तु भाषा की तटस्थता का वादा नहीं कर सकता
यह औरत है,
क्षमा करें औरत थी,
बीस बाईस साल की
इसके कान ऊपर की ओर भी छिदे हुए हैं
सुहाग आभूषण अटहोर पहनने के लिए
(अटहोर ज़ोर से खींच लिया गया है क्योंकि कानों के ऊपरी छेद 
कट कर लंबे हो गए हैं।)
कोष्ठक में मेरी यह व्यावसायिक टिप्पणी है परन्तु
कल तक सब के साथ इन कानों को भी फाड़ती थीं भुतहा चिल्लाहटें
“ हम क्या चाहते आज़ादी”
और दोनों कानों के श्रवण स्नायुओं से होते हुए
इन चिल्लाहटों का आतंक पहुंच गया होगा 
मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धों में 
जो कि अब अलग अलग पड़े हैं
खोपड़ी के दो अलग अलग हिस्सों में
हर गोलार्द्ध में अपने अपने हिस्से का आतंक है
पीड़ा है
लेकिन मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि
आरे पर काटे जाने से पहले ही वह मर चुकी थी 
क्योंकि जिस्म के कटे हुए हिस्सों से 
ख़ून ही नहीं बहा 
हृदय का धड़कना तो पहले ही बंद हो चुका था
उसको महसूस ही नहीं हुई होगी वह असीम पीड़ा..
................
मूर्ख हो तुम 
उसे तो दो टुकड़ों में काटा ही इसलिए गया था 
कि पीढ़ियों तक बहती रहे यह पीड़ा 
तुम बोलो न बोलो
कान सुनें न सुनें
आरी चलती रहे खोपड़ी को बीच में से काटकर पहुंचे भगोष्ठों तक 
कि तुम्हें याद रहे 
मातृत्व का राक्षसी मर्दन
............
हां कटी हुई अंतड़ियों के छेद को दबाया तो 
हरे साग और भात के अंश मिले
घर से खाना खाकर निकली थी यह
कि शाम को वापस आएगी,
देखो अलग अलग पड़े दोनों हिस्सों के
अलग अलग भगोष्ठों को देखो
देखो जमे हुए काले पड़ रहे रक्त के साथ मिला हुआ
श्वेत द्रव्य 
मध्य युगीन रेगिस्तानी वासनाओं का 
विक्षिप्त, नृशंस वीर्य
चिल्लाता हुआ ऐ काफ़िरो ऐ ज़ालिमो
किसी को सज़ा नहीं मिलेगी
...............
बस तुम्हें यह आरी काटती रहेगी खोपड़ी के बीच से भगोष्ठों तक
इस पोस्टमार्टम के बाद 
पुरुष होते हुए भी 
तुम्हारे वक्ष उभर आएंगे
परिवर्तित हो जाएंगे तुम्हारे सभी अंग
आत्म परीक्षण हो जाएगा
यह शव परीक्षण
जो भी हो चलो
अभी इतना तो किया ही जा सकता है कि
बीच से कटे हुए इस जिस्म के दोनों हिस्सों को 
एक दूसरे से जोड़ कर सिल दिया जाए
एकता और अखंडता के साथ 
कम से कम अंत्येष्ठि तो होगी 
अग्नि की भेंट चढ़ने तक ही सही
शव परीक्षक की सिलाई
कम से कम इस काम तो आएगी कि
राख होने तक भ्रम बना रहे कि 
दोनों टुकड़े 
एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं।
0
जून 1990
Awadhesh Mishra की वॉल से साभार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें