हरेश कुमार
Lalu Prasad Yadav और Nitish Kumar सत्ता के लिए भले ही एक-दूसरे के साथ आए हैं, लेकिन इन दोनों की राजनीति दो ध्रुवों पर हमेशा से रही है। इनकी हालत भई गति सांप- छुछूंदर केरी या गले में हड्डी अटकने की तरह है। 2014 के लोकसभा चुनाव में Narendra Modi का नाम भाजपा के द्वारा आगे किए जाने से पहले तक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद पीएम कैंडिडेट बनने का सपना देख रहे थे और इसमें मीडिया के एक बड़े वर्ग ने खुलकर उनका साथ दिया था।
बिहार में नीतीश कुमार का जनाधार लालू प्रसाद यादव के मुखर विरोध से बना था। लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि अगर इस समय वो आगे आएं तो हो सकता है कि पीएम भी बन सकते हैं। बस क्या था। एक ही झटके में 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ डाला। इतना ही नहीं तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे Narendra Modi के सम्मान में आयोजित भोज भी रद्द कर दिया और अपने आप को अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा समर्थक प्रचारित करने में पूरी उर्जा खपा दी। जब लगा कि इससे भी बात नहीं बनने वाली है तो लालू प्रसाद यादव के पास पहुंच गए ताकि सांप्रदायिक ताकतों को रोका जाए।
इन्टॉलरेंस और अवॉर्ड रिटर्न गिरोह ने इसमें अपनी भूमिका निभाई। इसके साथ ही Rashtriya Swayamsevak Sangh : RSS मुखिया आरक्षण को लेकर एक बयान दे दिया। फिर कहने को बचा किया। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के मन की मुराद पूरी हो गई। वामपंथी जो पूरे देश से ठुकरा दिए गए थे। नीतीश औऱ लालू प्रसाद के साथ आगे आ गए और नतीजा बिहार में बीजेपी की करारी हार।
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की पार्टियों के बीच गठबंधन से दोनों ही दल को फायदा हुआ वरना नीतीश की स्थिति बहुत नाजुक हो चुकी थी। लोकसभा के चुनाव में मात्र दो सीटों पर आ चुके थे वहीं राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद भी राजनीति के हाशिए पर पहुंच गए थे। ऐसी स्थिति में दोनों एक-दूसरे के साथ आ गए। लेकिन सवाल है कि दोनों नेताओं का अपना-अपना हित है और ये कब तक राजनीतिक दोस्त बने रहेंगे।
लालू प्रसाद यादव को इस गठबंधन से न सिर्फ राजनीतिक जीवन मिला बल्कि हाशिए पर गई पार्टी फिर से सत्ता में बड़ी पार्टी की भूमिका में आ गई।
अब जबकि नीतीश कुमार कम सीट मिलने के बाद भी बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं तो वहीं लालू प्रसाद यादव के छोटे पुत्र तेजस्वी यादव भी उप-मुख्यमंत्री हैं। मौका मिलते ही नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के समर्थक आपस में ही भीड़ जाते हैं।
लालू प्रसाद यादव की मजबूरी है कि सबकुछ जानते-समझते हुए भी चुप रहें। वरना सारे गिले-शिकवे को भूलकर नीतीश कुमार को भारतीय जनता पार्टी अपने गोद में रखने के लिए हमेशा तैयार है। ऐसी स्थिति में वो ज्यादा उछल-कूद कर भी नहीं सकते हैं। दूसरी तरफ, नीतीश कुमार को भी पता है कि अगर वो फिर से भाजपा की गोदी में आए तो पहले वाली स्थिति में नहीं होंगे। राज्य की आर्थिक स्थिति से सभी परिचित हैं। विकास कार्यक्रमों के लिए केंद्र की मदद की हमेशा दरकार है। इन सब चीजों को देखकर जहां तक हो सके संतुलन बैठाने की कोशिश करते रहेंगे। वैसे दोनों पार्टियों का गठबंधन पांच साल पूरा चल जाए इतना ही काफी है।
लालू प्रसाद यादव भी जानते हैं कि अगर नीतीश कुमार पर ज्यादा रोब गांठा तो वो दिन दूर नहीं कि फिर से पुनर्मूषिको भव: की स्थिति में आ जाएं। इसलिए कभी खुशी-कभी गम की तरह दोनों पार्टियां कभी दूर, कभी पास जैसा गेम खेलती रहेंगी और सभी का मनोरंजन होता रहेगा।
#LaluPrasadYadav #NitishKumar #NarendraModi #Bihar #CM #Center #Politics #JDU #RJD #Congress #TejaswiYadav
Lalu Prasad Yadav और Nitish Kumar सत्ता के लिए भले ही एक-दूसरे के साथ आए हैं, लेकिन इन दोनों की राजनीति दो ध्रुवों पर हमेशा से रही है। इनकी हालत भई गति सांप- छुछूंदर केरी या गले में हड्डी अटकने की तरह है। 2014 के लोकसभा चुनाव में Narendra Modi का नाम भाजपा के द्वारा आगे किए जाने से पहले तक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद पीएम कैंडिडेट बनने का सपना देख रहे थे और इसमें मीडिया के एक बड़े वर्ग ने खुलकर उनका साथ दिया था।
बिहार में नीतीश कुमार का जनाधार लालू प्रसाद यादव के मुखर विरोध से बना था। लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि अगर इस समय वो आगे आएं तो हो सकता है कि पीएम भी बन सकते हैं। बस क्या था। एक ही झटके में 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ डाला। इतना ही नहीं तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे Narendra Modi के सम्मान में आयोजित भोज भी रद्द कर दिया और अपने आप को अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा समर्थक प्रचारित करने में पूरी उर्जा खपा दी। जब लगा कि इससे भी बात नहीं बनने वाली है तो लालू प्रसाद यादव के पास पहुंच गए ताकि सांप्रदायिक ताकतों को रोका जाए।
इन्टॉलरेंस और अवॉर्ड रिटर्न गिरोह ने इसमें अपनी भूमिका निभाई। इसके साथ ही Rashtriya Swayamsevak Sangh : RSS मुखिया आरक्षण को लेकर एक बयान दे दिया। फिर कहने को बचा किया। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के मन की मुराद पूरी हो गई। वामपंथी जो पूरे देश से ठुकरा दिए गए थे। नीतीश औऱ लालू प्रसाद के साथ आगे आ गए और नतीजा बिहार में बीजेपी की करारी हार।
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की पार्टियों के बीच गठबंधन से दोनों ही दल को फायदा हुआ वरना नीतीश की स्थिति बहुत नाजुक हो चुकी थी। लोकसभा के चुनाव में मात्र दो सीटों पर आ चुके थे वहीं राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद भी राजनीति के हाशिए पर पहुंच गए थे। ऐसी स्थिति में दोनों एक-दूसरे के साथ आ गए। लेकिन सवाल है कि दोनों नेताओं का अपना-अपना हित है और ये कब तक राजनीतिक दोस्त बने रहेंगे।
लालू प्रसाद यादव को इस गठबंधन से न सिर्फ राजनीतिक जीवन मिला बल्कि हाशिए पर गई पार्टी फिर से सत्ता में बड़ी पार्टी की भूमिका में आ गई।
अब जबकि नीतीश कुमार कम सीट मिलने के बाद भी बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं तो वहीं लालू प्रसाद यादव के छोटे पुत्र तेजस्वी यादव भी उप-मुख्यमंत्री हैं। मौका मिलते ही नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के समर्थक आपस में ही भीड़ जाते हैं।
लालू प्रसाद यादव की मजबूरी है कि सबकुछ जानते-समझते हुए भी चुप रहें। वरना सारे गिले-शिकवे को भूलकर नीतीश कुमार को भारतीय जनता पार्टी अपने गोद में रखने के लिए हमेशा तैयार है। ऐसी स्थिति में वो ज्यादा उछल-कूद कर भी नहीं सकते हैं। दूसरी तरफ, नीतीश कुमार को भी पता है कि अगर वो फिर से भाजपा की गोदी में आए तो पहले वाली स्थिति में नहीं होंगे। राज्य की आर्थिक स्थिति से सभी परिचित हैं। विकास कार्यक्रमों के लिए केंद्र की मदद की हमेशा दरकार है। इन सब चीजों को देखकर जहां तक हो सके संतुलन बैठाने की कोशिश करते रहेंगे। वैसे दोनों पार्टियों का गठबंधन पांच साल पूरा चल जाए इतना ही काफी है।
लालू प्रसाद यादव भी जानते हैं कि अगर नीतीश कुमार पर ज्यादा रोब गांठा तो वो दिन दूर नहीं कि फिर से पुनर्मूषिको भव: की स्थिति में आ जाएं। इसलिए कभी खुशी-कभी गम की तरह दोनों पार्टियां कभी दूर, कभी पास जैसा गेम खेलती रहेंगी और सभी का मनोरंजन होता रहेगा।
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