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रविवार, 11 दिसंबर 2016

भागलपुर में दलितों पर हुए लाठीचार्ज पर किसी मानवाधिकारवादी को चिंतित होते नहीं देखा

#अंधेराकायमरहे
हरेश कुमार


बिहार के भागलपुर में दलितों पर हुए लाठीचार्ज पर किसी मानवाधिकारवादी को चिंतित होते नहीं देखा। इन महिलाओं का कसूर बस इतना था कि वो अपने लिए आवंटित जमीनों के पर्चे की मांग कर रही थी और पिछले 4 दिनों से  भूख-हड़ताल पर बैठी थी, लेकिन जब कहीं से कोई सुनवाई नहीं हुआ तो कलेक्टर परिसर में घुसने का प्रयास करने लगी थी। इसके बाद तिलकामांझी थाने की पुलिस, सदर एसडीओ, डीएसपी सिटी के नेतृत्व में पुलिस बल ने इन महिलाओं पर जो अत्याचार किया वह किसी भी व्यक्ति को दुखी कर देने वाला है।


इन सबकी कलम और जुबां तब चलती है जब किसी आतंकवादी, अग्रवादी या नक्सलवादी की पुलिस मुठभेड़ में हत्या हो जाए। अचानक ऐसे लोग अपने-अपने बिलों से निकलते हैं और जुबां पर पड़ी धूल को झाड़-पोछकर व्यवस्था को कोसना शुरू कर देते हैं। ऐसे लोग आतंकवादियों, उग्रवादियों और नक्सलवादियों के मानवाधिकारों के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। लेकिन किसी दलित, गरीब या मजबूर की पुलिस या प्रशासन द्वारा पिटाई पर इनकी नजर नहीं पड़ती। खासकर तब जब इनके वैचारिक समर्थक दलों की सरकार सत्ता में हो।


अभी कुछ दिनों पहले गुजरात में कुछ दलितों की कथित गोरक्षकों ने पिटाई कर दी थी तब ये सभी मानवाधिकारवादी अपने-अपने बिलों से बाहर आ गए थे। देशभर से मानवाधिकारवादी और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता व कथित सामाजिक कार्यकर्ता गुजरात पहुंचकर वहां पीड़ित परिवार से मिलकर न सिर्फ उनकी लड़ाई में साथ देने का वादा किया था बल्कि ऐसे लग रहा था कि जैसे पूरी कायनात को ये पलट दें। लेकिन कुछ दिनों के बाद जैसे ही मामला शांत होने लगा ये सारे लोग गदहे के सिंग की तरह गायब हो गए।


इन सबका मकसद सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक लाभ लेना है। किसी गरीब या दलित या कमजोर को न्याय दिलाना नहीं। और यही ये लोग हमेशा से करते आए हैं। अन्यथा आजादी के इतने सालों बाद आज तक गरीबी और भ्रष्टाचार को मिटाने का संकल्प लेने वाले लोग खुद अपने सात पुश्तों की गरीबी मिटा लिए, लेकिन गरीब की स्थिति में कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिला। सुखिया आज भी अपने तन को ढकने और परिवार को पालने के लिए दूसरों की मोहताज है। उसे तलाश है किसी ऐसे फरिश्ते की जो उसे न्याय दिला सके, ताकि वो न सिर्फ अपना तन ढक सके बल्कि अपने बाल-बच्चों की अच्छी परवरिश कर सके। लेकिन मौजूदा समय में यह मुमकिन होते लगता नहीं।



सामाजिक न्याय की पैरोकार सरकार के राज में ये सब होना किसी को विचलित नहीं करता। हम बचपन से ऐसे मामलों को देखते आए हैं। गरीब सिर्फ रैलियों में नारे लगाने के लिए होते हैं और इसके लिए क्षेत्र के छुटभैय्ये नेता उन्हें दिहाड़ी मुहैया कराते हैं औऱ साथ में कच्ची शराब भी जिसे पीकर न जाने कितनों की दुनिया उजड़ गई तो कितने अपंग हो गए लेकिन इसकी परवाह किसी को नहीं।

Lalu Prasad Yadav और Nitish Kumar ही क्यों सबको अपने-अपने राजनीतिक हितों की चिंता है। आखिर जब गरीब ही न रहेंगे तो फिर किसके लिए वो आंदोलन और भूख-हड़ताल करेंगे। ये सब चुनाव नजदीक आते ही फिर से नए समीकरणों को जन्म देते हैं और फिर उसके बाद सब मामला सेट्ल हो जाता है। गरीब और भ्रष्टाचार को मिटाने आए नक्सलियों के इतिहास को देखें तो वहां सबसे ज्यादा महिलाओं और गरीबों को शोषण होता है। लड़कियों, महिलाओं और यहां तक कि नाबालिग बच्चों का न सिर्फ यौनशोषण होता है बल्कि उन्हें सबसे आगे टारगेट पर रखा जाता है बाकी कथित लीडर उनका उपयोग रक्षा कवच के तौर पर करते हैं। बेचारे इसी में खुश रहते हैं कि एक दिन उन्हें न्याय मिलेगा, लेकिन ये न्याय है कि उनसे सपने में भी आंखमिचौली खेलता रहता है और फिर एक दिन ऐसे ही पुलिस मुठभेड़ में उनकी कहानी खत्म हो जाती है।

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