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शनिवार, 22 अप्रैल 2017

ये 'दाग' और 'दागी' अच्छे हैं?

चोर-चोर मौसेरे भाई।

भारतीय राजनेताओं के लिए यूं ही नहीं कहा गया है। कल तक एक-दूसरे को देख लेने और तथाकथित भ्रष्टाचार के मामले में कीचड़ उछालने के बावजूद कब कौन किस पार्टी में शामिल हो जाए। कह नहीं सकता।भाजपा के छोटे से राजनीतिक इतिहास में ऐसे अवसरवादी राजनीतिक समझौतों की एक पूरी श्रृंखला है।

अभी अरविंदर सिंह लवली के बाद बरखा सिंह के भी Bharatiya Janata Party (BJP) में शामिल हो चुकी हैं। कल तक BJP Delhi के नेता दिल्ली महिला कांग्रेस की नेता व दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष रह चुकीं बरखा शुक्ला सिंह पर कई तरह के आरोप लगाते रहे हैं। अब किस मुंह से वो इन सबका बचाव करेंगे।

इस पार्टी ने कभी केंद्रीय संचार मंत्री रहे सुखराम के भ्रष्टाचार में शामिल होने के सवाल पर संसद की कार्यवाही को ठप्प किया था। आगे चलकर जब कांग्रेस पार्टी से अलग होकर पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस (हिवकां) नाम से पार्टी बनाई और हिविकां के पांच विधायक बने। उस समय भाजपा और कांग्रेस की 31-31 सीटों पर जीत हुई। हिविकां के सहयोग से तब मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनीं। हिविकां समर्थित भाजपा सरकार ने अपना कार्यकाल तो पूरा किया, मगर बाद में हिविकां का भी कांग्रेस में विलय हो गया।
बाबूराम कुशवाहा से लेकर ऐसे कई नाम है। कर्नाटक में खनन घोटाला में शामिल रेड्डी बंधुओं का बीजेपी में कभी दबदबा हुआ करता था।
पंडित सुखराम अपनी पुरानी पार्टी में लौट आए। ऐसे एक नहीं सैकड़ों मामले हैं और ऐसी स्थिति में तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि दाग अच्छे हैं?
भाजपा नेता किरीट सोमैया ने जिन बाबू सिंह कुशवाहा को उत्तर प्रदेश में दस हजार करोड़ रुपयों से अधिक के बहुचर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.एच.आर.एम) घोटाले का सूत्रधार बताया था और जो सी.बी.आई जांच के घेरे में फंसे हैं, उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की पूरी सहमति से ससम्मान पार्टी में शामिल किया गया।

बीजेपी में शामिल होने वालों में कुशवाहा अकेले दागी नेता नहीं हैं, जिन्हें पार्टी ने इस तरह बांहें फैलाकर स्वागत किया है।
मायावती सरकार में शामिल रहे पूर्व मंत्री बादशाह सिंह हैं जिन्हें लोकायुक्त जांच में दोषी पाए जाने के कारण हटाया गया था। इसके अलावा अवधेश वर्मा, ददन मिश्र जैसे मंत्री को भी मायावती ने ऐसे ही आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। इन सभी को भाजपा ने इन सभी को हाथों-हाथ लिया है।
कई और पूर्व बसपाई मंत्री/विधायक और सांसद कतार में हैं। भाजपा के लिए यह कोई नई बात नहीं है। पार्टी इस खेल में माहिर हो चुकी है। उसके लिए अवसरवाद अब सिर्फ रणनीतिक मामला भर नहीं है, बल्कि उसके राजनीतिक दर्शन का हिस्सा बन चुका है।

तात्कालिक राजनीतिक लाभ और सत्ता के लिए भाजपा अपने घोषित राजनीतिक सिद्धांतों और मूल्यों की बिना किसी अपवाद के बलि चढ़ाती आई है। यह उसकी राजनीति की सबसे बड़ी पहचान बन गई है।
यूपी में ही कल्याण सिंह के नेतृत्व में दलबदलुओं, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और दागियों के साथ सबसे बड़ा मंत्रिमंडल बनाके और फिर मायावती के नेतृत्व में बसपा के साथ सत्ता की साझेदारी करके राजनीतिक अवसरवाद का नया रिकॉर्ड बनाया था।

कर्नाटक में पार्टी ने खनन माफिया के बतौर कुख्यात रेड्डी बंधुओं की बगावत के बाद उनके आगे घुटने टेक दिए और बाद में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसे येद्दियुरप्पा ने भी भाजपा नेतृत्व की पूरी फजीहत कराने के बाद ही इस्तीफा दिया था। चुनाव में हार के बाद बीएस. येदुरप्पा की पार्टी में फिर से ससम्मान वापसी  हो गई।

झारखंड में शीबू सोरेन के साथ आरोप-प्रत्यारोप और फिर गलबहियां सबकुछ बयां कर देती है।

सच पूछिए तो आज भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और धनबलियों को राजनीतिक संरक्षण और प्रोत्साहन देने में भाजपा किसी भी मध्यमार्गी पार्टी से पीछे नहीं नहीं है। किसी भी अन्य पार्टी की तरह भाजपा में भी सत्ता के दलालों, भ्रष्ट और लुटेरे ठेकेदारों/कंपनियों, माफियाओं और अवसरवादी तत्वों की तूती बोल रही है।
भाजपा और उसके शीर्ष नेताओं के लिए ये दोनों ही बातें सही हैं। असल में, वे गुड भी खाना चाहते हैं और गुलगुले से परहेज का नाटक भी करते हैं। सच यह है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर भाजपा की राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता जैसे-जैसे उजागर होती जा रही है। उसके लिए सत्ता, साधन के बजाय साध्य बनती जा रही है। हर तरह के अपराध और भ्रष्टाचार में भागीदार रहे लोगों को भारतीय जनता पार्टी में शामिल करने वाली एक समय चाल-चेहरा और चरित्र की बातें किया करती थी।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीतिज्ञों के लिए कथनी और करनी में कोई समानता नहीं है। सत्ता प्राप्ति के लिए पार्टियां किसी को भी न शामिल करने से परहेज करती है और न ही बाहर का रास्ता दिखाने से। समय समय-समय की बात है। आप कह सकते हैं कि अगर आपके सितारे बुलंद हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पर हत्या, बलात्कार या ऐसे ही जघन्य अपराध में शामिल होने का आरोप ये पार्टियां खुद लगाती रही हों। जरूरत और समय के साथ-साथ इन सब चीजों की परिभाषा बदलती रहती है। बस आपके पास जाति-धर्म का वोट और बाहुबल या दौलत की ठसक होनी चाहिए।

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