आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में पैदा हुए श्री राहुल सांकृत्यायन महापंडित थे। लेकिन उनके पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी। जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पता चला कि राहुल जी की हिंदी में लिखी किताब 'मध्य एशिया का इतिहास' ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के कोर्स में है, तो उन्होंने अपने शिक्षा मंत्री हुमायूं कबीर को कहा कि राहुल जी को किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रख लो। मगर पारंपरिक अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के हामी हुमायूं कबीर ने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि राहुल जी को कुलपति ही बना दो मगर कबीर साहब नहीं माने। यह थी उनके महापंडित होने की भारत में कद्र।
पर इन्हीं अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के लिहाज से अनपढ़ महापंडित राहुल सांकृत्यायन को श्रीलंका स्थित अनुराधापुर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग से बौद्ध धर्म पढ़ाने का न्योता आया। राहुल जी वहां पहुंच गए। मगर विश्वविद्यालय उनके मानदेय को लेकर संकुचित थे। पूछा- कि पंडित जी मानदेय कितना लेंगे? महापंडित बोले- कुछ नहीं बस साल में दो जोड़ी धोती-कुर्ता और रोज दो टाइम भोजन। और राहुल जी अनुराधापुर स्थित विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर हो गए। राहुल जी को सोवियत सरकार ने भी बुलाया था मगर भारत में उनकी कोई कद्र नहीं हुई।
राहुल जी की पुस्तकों में 'मध्य एशिया का इतिहास' अवश्य पढ़ें और 'दर्शन दिग्दर्शन' भी। संभव हो तो उनकी पुस्तक 'घुमक्कड़ स्वामी' भी पढ़ें। राहुल जी ने औपचारिक रूप से बस मिडिल किया था। वहीं उन्होंने पाठ्य पुस्तक में एक शेर पढ़ा- "सैर कर दुनिया की गाफिल जिदंगानी फिर कहां, औ' जिंदगी जो गर रही नौजवानी फिर कहां।" इसके बाद राहुल जी उर्फ केदारनाथ पांडेय उर्फ परसा मठ के महंत बाबा रामोदार दास निकल गए सैर करने। अब वे भला कहां रुकने वाले थे। वे राहुल थे और उनका नारा था- चरैवति! चरैवति! यानी चलते रहो! चलते रहो!
(आज महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन है।)
प्रोफ.सरोज मिश्र via Pramod Shukla जी के वॉल से



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